GLF ( Gujarat Literature Festival )માં આજે રાત્રે ગીતકાર ઈર્શાદ કામિલનાં મ્યુઝિકલ કાવ્યો સાંભળીને ગેટની બહાર નીકળતા જ મારામાંથી એક કવિતા એ જ ક્ષણે ઝરણા માફક ફૂટી નીકળી....
टूट चुका हु पत्थर सा,
जुड़ नहीं पाउँगा
जुड़ नहीं पाउँगा
छूट चुका हु अतर सा,
मुड़ नहीं पाउँगा,
मुड़ नहीं पाउँगा,
तुम ये बतादो,
वो कौनसी गली थी,
बदल गया हे ये शहर,
ढुंढ नहीं पाउँगा ।
वो कौनसी गली थी,
बदल गया हे ये शहर,
ढुंढ नहीं पाउँगा ।
टूट चुका हु पत्थर सा,
जुड़ नहीं पाउँगा
जुड़ नहीं पाउँगा
मिल भी गइ तुम तो,
वो तुम कहा हॉगी ??
छलकती हुयी आँखों में
डूब नहीं पाउँगा
वो तुम कहा हॉगी ??
छलकती हुयी आँखों में
डूब नहीं पाउँगा
बीत चूका वो जीवन,
और वो सारा खनजन,
ठहर गया हु अब कही,
उठ नहीं पाउँगा
और वो सारा खनजन,
ठहर गया हु अब कही,
उठ नहीं पाउँगा
टूट चुका हु पत्थर सा,
जुड़ नहीं पाउँगा ....
जुड़ नहीं पाउँगा ....
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